रंगबाज पूरबियों को ले डूबी रंगदारी

दिल्ली के शातिर शोहदे अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पलते-बढ़ते हैं तो मुंबई के माफिया डॉन पूर्वी उत्तर प्रदेश (पूर्वाचल) की नर्सरी में आकार लेते हैं. यकीन मानिए, यही सच है. बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध में स्वतंत्रता संग्राम की कमान संभालने वाले व उत्तरा‌र्द्ध में देश को नेतृत्व प्रदान करने वाले अपने उत्तम प्रदेश अर्थात उत्तर प्रदेश की इक्कीसवी सदी की शुरुआत में यही पहचान है. ग्लोबलाइजेशन के दौर में मेच्योरिटी की ओर बढ़ रहा है भारतीय लोकतंत्र. ऐसे में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए पूरबिया प्रोफेशनल क्रिमिनल कम पॉलिटिशियन जनतंत्र का नया मुहावरा गढ़ने में मशगूल हैं. मंडल-कमंडल के झंझावातों को झेल नई जमीन तलाश रहे पूर्वाचल के सामाजिक व्याकरण के सिलेबस में भी आमूल चूल परिवर्तन हुआ है. क्लासिकल सामंतवाद के रंगमंच पर सिर्फ पात्र बदले हैं, पटकथा वही है.
हाल के दिनों के आपराधिक रिकार्डो पर गौर करें तो पता चलेगा कि पूर्वाचल के कई जिले अपराधियों के अभ्यारण्य में तब्दील हो चुके हैं. हर दूसरे-तीसरे दिन यहां कोई न कोई टपका दिया जाता है. गैंगवार के मामले में भी यहां के कई शहर अब मुंबई व सिंगापुर से सीधे ताल ठोक सकते हैं. सर्व विद्या की राजधानी मोक्षदायिनी काशी अब अपने रंगदारों के बूते पहचानी जा रही है. कहते हैं भोले नाथ की नगरी काशी के वासी मिजाज से भौकाली होते हैं. जेब में फुटी कौड़ी न भी हो तो रंगबाजी से बतियाना उनकी फितरत है. किसी जमाने में पूरबिये किसी दिग्गज राजनेता, साहित्यकार या किसी शिक्षाविद् के नाम की धौंस जमाया करते थे. अब किसी न किसी माफिया डॉन तक पहुंच की हेकड़ी बघारते हैं. अंडरव‌र्ल्ड में बढ़ रही उसकी साख किसी भी भले मानुष के पेशानी पर बल डाल सकता है. वैसे यह अंदर की बात है. सच तो यह है कि रंगदारी ने रंगबाज पूरबियों का बंटाधार कर दिया है.
अपने मिजाज की त्रासदी झेल रहा है पूर्वाचल. प्राकृतिक तौर पर अपराधी न होते हुए भी अपने अह्म की तुष्टि के लिए पूरबियों की नई पीढ़ी यदा-कदा कानून हाथ में लेने से गुरेज नहीं करती. इसके बाद कुछ मनबढ़ लंबे हाथ मारने से भी नहीं चुकते. ऐसे ही कुछ युवा अपराध की दलदल में फंसते जा रहे हैं तो कुछ खुद को मॉडर्न दिखाने की ललक में अपराधियों के मोहरे बनते जा रहे हैं. ये रंगबाज दीमक की तरह धीरे-धीरे पूर्वाचल की संपन्नता व व्यापार को चाटते जा रहे हैं. नतीजा आपके सामने है.पूर्वाचल में और उसमें बढ़ते अपराध कोढ़ में खाज का काम कर रहे हैं. हत्या, लूट, रंगदारी, अपहरण व बलात्कार सरीखे वारदातों की बढ़ती तादाद ने पूर्वाचल का इतिहास-भूगोल ही नहीं, अर्थशास्त्र को भी डावांडोल कर दिया है.
इस साल के शुरुआत के तीन महीनों में हत्या व लूट की तकरीबन दर्जन भर वारदातों को अकेले वाराणसी शहर में ही अंजाम दिया जा चुका है. गुजरे साल का लेखा-जोखा तो गोया खून से ही लिखा गया था. हत्या, लूट व अपहरण सरीखी वारदात अब पूर्वाचल के लिए एक आम बात है. ऐसी विषम परिस्थितियों में कोई उद्योगपति या व्यवसायी यहां आकर कारोबार करने के विषय में भला कैसे व क्यों सोचेगा? कई कारणों से पूर्वाचल की अपनी महत्ता है. मगर जिन विषम परिस्थितियों से मुखातिब है पूर्वाचल, दयनीय कानून-व्यवस्था उसकी सारी उपलब्धियों पर पानी फेरने के लिए काफी है. जान है तो जहान है. यहां के समर्थ उद्योगपति व व्यवसायी पलायन को लाचार हैं. जो किन्ही कारणों से पलायन नहीं कर सकते, वे भी पुलिस व प्रशासन के भरोसे नहीं, उन आततायियों के रहमोकरम पर ही रोजी-रोटी कमा रहे हैं, जो उनकी सुपारी हाथ में लिए घूम रहे हैं.
माफिया डॉन सुभाष ठाकुर ने पिछले दिनों एक इलेक्ट्रॉनिक चैनल को दिए साक्षात्कार में कहा था कि आपराधिक प्रतिभाओं के लिहाज से उर्वरा है पूर्वाचल की धरती. सबसे बड़ी बात यहां के युवा अपराधी कम से कम अपने आका से विश्वासघात नहीं करते. यही उनकी पूंजी है. इसीके बूते अंडरव‌र्ल्ड में इस तबके के पूरबियों की धाक है. वैसे पूर्वाचल में बढ़ रहे अपराध का एक अहम कारण भयंकर बेरोजगारी भी है. आईपीएस सुजीत पांडेय ने हाल में दिए एक इंटरव्यू में कहा कि बेरोजगारी पूर्वाचल में बढ़ते अपराध का बुनियादी कारण है. मिजाज से रंगबाज व भौकाली होने के कारण इस क्षेत्र के युवकों का एक तबका व्हाइट कलर जॉब की ताक में रहता है. जाहिर है सभी की अपेक्षाएं पूरी नहीं हो सकती. ऐसी हालत में वे छोटे-मोटे व्यवसाय की बजाय शॉर्टकट रास्तों के जरिए फटाफट अपना लक व लुक दोनों बदलना चाहते हैं.
उदार अर्थव्यवस्था व भूमंडलीकरण की बदौलत काशी व उसके आसपास के शहरों में कमाने के जरिए भले न बढ़े हों, सपने व महत्वकांक्षाएं जरूर युवा पीढ़ी के दिल-दिमाग में पैठ बनाईं हैं. इन्हें हासिल करने की ललक के चलते लोगों के खर्चे बेहिसाब बढ़े हैं. संबंधित तबका इन खर्चो को पूरा करने के लिए बेजां हरकतें करने से बाज नहीं आता. गलत संगत में पड़कर कई भले घरों के लड़के घोड़े पर उंगलियां टिकाए यायावरी जीवन बिताने को मजबूर हैं. महज ब्रांडेड कपड़े-जूते, मोबाइल व थोड़े बहुत नोटों के लालच में कई लड़के सत्या ब्रांड शूटर्स बन गए हैं. अब उनके पास सब कुछ है, सिवाय चैन की नींद के. रही सही कसर पूरी कर देता है पड़ोसी राज्य बिहार. न सिर्फ असलहे अपितु कोच भी मुहैया करवाता है बिहार. जरूरत पड़ने पर पुलिस से छिपने के लिए वहां शरण भी उपलब्ध है. वैसे ऐसे तत्वों को संरक्षण प्रदान कर अपना उल्लू सीधा करने से पूर्वाचल के राजनेता भी बाज नहीं आते. जी हां, पूर्वाचल की बिगड़ी तबीयत के लिए कई कारक ग्रह मौजूद है. विडंबना तो यह है कि काशी समेत समूचे पूर्वाचल की तीमारदारी का अहम दायित्व जिन्हें सौंपा गया है, उनमें से कई जनप्रतिनिधियों का टांका सीधे अंडरव‌र्ल्ड से जुड़ा है. जो सीधे नहीं जुड़े हैं, वे भी घुमा फिरा कर थोड़ी बहुत मोंगाबो को खुश करने की जुगत भिड़ाने की हैसियत रखते हैं. जाहिर है ऐसे हालात में काशी की हिफाजत तो इसके शाश्वत कोतवाल (भैरो बाबा) ही कर सकते हैं.
कोलकाता, दिल्ली, मुंबई हो या मारीशस व त्रिनिदाद, हाड़तोड़ मेहनत के लिए अभ्यस्त पूरबिए जहां भी गए वहां की अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन उभरे. लगभग दस साल पहले नई दिल्ली के मावलंकर हाल में अखिल विश्व भोजपुरी सम्मेलन के सालाना जलसे को संबोधित करते हुए वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र ने कहा था महानगर ही नहीं, बीहड़ में भी आर्थिक तौर पर स्वावलंबी हो परचम लहराने का माद्दा भोजपुरी भाषियों में है, मगर दीप तले अंधेरे की कहावत चरितार्थ करता है इनका अपना घर, अपना इलाका. क्या वजह है कि यहां की प्रतिभाएं अन्यत्र रंग दिखाती हैं, जबकि यहां लाचार दिखती हैं? ये सवाल अब भी अनुत्तरित है.
आई नेक्स्ट वाराणसी (29 मार्च 2008) से साभार

गुरु मंत्र

बने रहो पगला, काम करेगा अगला. बने रहों लूल, सैलरी पाओ फुल. मत लो टेंशन, नहीं तो फेमिली पाएगी पेंशन. काम से डरो नहीं, काम को करो नहीं. काम करो या न करो, काम की फिक्र जरूर करो. और फिक्र भले न करो, काम का जिक्र जरूर करो.